पिछले कई दिनों से दलित पत्रकार की तलाश जारी है। पता नहीं मिला या नहीं? अगर मिल गया हो तो बहुत अच्छा वर्ना इसके न मिलने कर ठीकरा भी गैर दलितों के सिर पर फोड़ा जाएगा। दलितों के विकास में गैरदलितों की भूमिका को ऐसे पेश किया जाता है जैसे पिछले साठ सालों से गैर दलितों ने उनके विकास के कमरे पर ताला लगा रखा है और चाबी देने को तैयार नहीं हैं।
मजे की बात है कि जो दलित उच्च पदों पर पहुँच गए हैं और मलाईदार तबके में गिने जाते हैं उनसे कोई नहीं पूछता कि भई तुमने क्या किया दलितों के उत्थान के लिए। वो तो आज भी वो सारे लाभ उठाते हैं जो कि उनसे बरसों पहले छीन लिए जाने चाहिए थे।
पता नहीं यह बहस शुरु करने का मकसद क्या था ? जिस रिपोर्ट को आधार बनाया गया है क्या वो सारे देश के पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करती है।
मेरे को तो इस तरह की बहसें बिल्कुल निरर्थक लगती हैं। शुद्ध बेसिरपैर का ऐसा काम जिसमें हवा में लाठी भांजने के अलावा क्या किया जाता है पता नहीं। शायद इसिलिए अक्सर ऐसी बहसें बीच मझधार छोड़ दी जाती हैं और फिर नए मुद्दे पकड़ लिए जाते हैं।
इस असमानता को दूर करने के लिए क्या, कैसे किया जाए या जो हो रहा है उसका फायदा सही उम्मीदवार को कैसे मिले इस पर कोई चर्चा नहीं।
एक पत्रकारिता का क्षेत्र बचा था इस जातिवाद और आरक्षण से तो लीजिए अब उसको भी लाइन में खड़ा करने की तैयारी है।
पत्रकारिता अकेला ऐसा काम है जिसमें कोई डिग्री, कोई फॉर्मल एजुकेशन की जरूरत नहीं। यह एकमात्र ऐसा पेशा है जिसमें अगर आप योग्य नहीं तो चाहे कितने डिग्री/डिप्लोमा कर लीजिए ज्यादा नहीं टिक पाएंगे, अगर आपमें प्रतिभा नहीं तो कुछ नहीं।
दूसरे नज़रिये से देखें तो दो ही काम हैं जिस पर हर भारतवासी का जन्मसिद्ध अधिकार है - एक नेतागिरी, दूसरा पत्रकारिता। जो चाहे जब चाहे अपने को पत्रकार/नेता घोषित कर सकता है। गॉवों, छोटे शहरों में दसवी पास बारहवीं फेल पत्रकार खूब मिलते हैं और अक्सर ऐसे स्वयंभू पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर वो सारे काम कर रहे होते हैं जो पत्रकारिता की आड़ में आसानी से किए जा सकते हैं।
अब क्या ऐसे कामों में भी आरक्षण चाहिए, जिनमें कोई न्यूनतम योग्यता ही नहीं है।
आरक्षण से विरोध नहीं है। पर विरोध है धर्म और जाति को आधार बनाकर दिए जाने वाले आरक्षण से। उस आरक्षण से जहॉं पर क्षमता की लकीर को समता के नाम पर जबरदस्ती छोटा किया जाता हो। आरक्षण के नाम पर दाखिले/भर्ती की न्यूनतम योग्यताऍं कम करना एक गलत फैसला है और इसका विरोध किया ही जाना चाहिए। उस गरीब गैर-दलित को दाखिला क्यों नहीं मिलता जो कि सारी न्यूनतम योग्यताऍं भी पूरी करता है पर उसके पास फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं, और दूसरी तरफ मलाईदार तबके के एक सम्पन्न व्यक्ति को न्यूनतम योग्याताऍं पूरी न करने के बावजूद दाखिला मिल जाता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि वो दलित है।
अब पैदा होना तो किसी के वश में नहीं।
रविवार, फ़रवरी 10, 2008
दलित पत्रकार ढूंढो अभियान
:: Unknown :: 4:19 pm
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9 टिप्पणियॉं:
मैं आपकी बात से सहमत हूं. इस मुद्दे पर कुछ विचार मैने भी अपने चिट्ठे पर पेश किए हैं.
यहां पढ़ सकते हैं मेरे विचार
http://sanjay-uvach.blogspot.com/2008/02/blog-post.html
ha main aap ki baat se sehmat hu
दलित-सवर्ण, स्त्री-पुरुष गैरबराबरी आज के मुख्य अन्तर्विरोध नहीं है। इस कारण से स्वतंत्र रुप से इनका अंत होना संभव नहीं है। आज का मुख्य अन्तर्विरोध श्रमजीवीयों और उत्पादन साधनों के स्वामियों के मध्य है इस अन्तर्विरोध के लिए संघर्ष के दौरान अन्य अन्तर्विरोध भी दूर होंगे। इस कारण से सभी को मुख्य अंतर्विरोध के लिए मुख्य रुप से काम करते हुए गौण अन्तर्विरोध के लिए भी काम करना चाहिए। जब हम गौण अन्तर्विरोध को मुख्य मान कर काम करते हैं तो मुख्य अंतर्विरोध के खिलाफ खड़े हो जाते है और इस तरह अपने गौण अंतर्विरोध के भी विरुद्ध काम करने लगते हैं। इस से शोषण के विरुद्ध लड़ाई को कमजोर करते हैं। यहां यही हो रहा है।
जाति के आधार पर विषमता है इसलिए जाति के आधार पर आरक्षण है। समान गरीब द्विज(जनेऊ सहित) और शूद्र भीख भी माँगने निकलेंगे तो भीख भी द्विज को ही ज्यादा मिलेगी।चाय-पान और खाने-पीने की दुकान भी शूद्र की नहीं चलती। अंकों के आधार पर योग्यता तय करते वक्त क्या इसका पता भी किया जाता है कि पढ़ाई-लिखाई के लिए किसे कितना समय मिला था?कलम और कुदाल की योज्ञता भी अलग-अलग है इसका ध्यान भी रखना होगा।
मौन सहमति
सही लिखा है बंधु । सहमत हैं । और हां, अपने ब्लाग पर लगातार उपस्थिति दर्ज कराते रहिए....
क्यो.ना सारे भारत को ही दलित राज्य घोशित कर के यु.एन.ओ मे स्थाई सीट के लिये आरक्शन
मागा जाये
very beautiful writing Sir. I apriciate it.
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