रविवार, जुलाई 27, 2008

चकल्‍लस : कैरी... पास... फॉरवर्ड.... गोल

Dr[1]. K.P. Saxena

कुछ पुराने कैसट्स मिल गए जिसमें सर्वश्री शरद जोशी, केपी सक्‍सेना आदि के स्‍वर में ही उनकी व्‍यंग्‍य रचनाऍं हैं ।

शुरुआत करते हैं श्री के पी सक्‍सेना जी की एक बेहतरीन गद्य रचना से। सुनिए हॉकी पर राजनीति के पैनल्‍टी स्‍ट्रोक की कहानी उनके अपने अंदाज़ में।

चित्र हृदय गवाक्ष से साभार

शनिवार, मार्च 01, 2008

जहॉं चाहें, वहॉं पत्रिकाऍं

आज बात करते हैं किताबों की दुकान की। जहॉं जाइये अपने पसंद की पत्रिका पढि़ये, वो भी बिना घर से बाहर निकले। जी हॉं, मैं बात कर रहा हूँ एक ऑनलाइन मैगज़ीन स्‍टोर की। इस ऑनलाइन मैगज़ीन स्‍टोर का पता है http://www.ezinemart.com/





इस स्‍टोर में अधिकांश किताबें आप बिना कोई पैसा खर्च किए पढ़ सकते हैं। चाहें तो अपने कम्‍प्‍यूटर पर सेव भी कर सकते हैं। इंडियाटुडे (अंग्रेज़ी और हिन्‍दी), आउटलुक जैसी सामयिक पत्रिकाओं के अलावा बिज़नेसटुडे, मनी ट़डे, आउटलुक प्रोफिट जैसी आर्थिक पुस्‍तकें, महिलाओं की पत्रिकाऍं गृहलक्ष्‍मी, सैवी, न्‍यूवूमैन, लाइफस्‍टाइल पत्रिकाऍं, फिल्‍मी पत्रिकाऍं शोटाइम, स्‍टारडस्‍ट, ऑटोमोबाइल सैक्‍टर की ऑटो भारती से लेकर प्रतियो‍गिता दर्पण जैसी पत्रिकाऍं यहॉं उपलब्‍ध हैं। साथ ही इनमें से कई पत्रिकाओं के पुराने अंक भी आप यहॉं देख सकते हैं।11-12 भागों में बंटे इस साइट पर अभी करीब 35 मैगज़ीन उपलब्‍ध हैं। जिसमें से एकाध को छोड़कर सारी मुफ्त हैं।
सबसे अच्‍छी बात इस साइट के बारे में यह है कि मैगज़ीन पढ़ते वक्‍त उसका रंगरूप बिल्‍कुल वही होता है जैसा कि मुद्रित पुस्‍तक में होता है। एक तरह से छपी हुई किताब को ज्‍यों को त्‍यों नेट पर लगा दिया गया हो।

पन्‍ने पलटने की भी जरूरत नहीं, अनु‍क्रमणिका में अपनी पसंद के लेख पर क्लिक किजिए और सीधे लेख आपके सामने।



आप में से कई लोगों ने शायद यह साइट पहले देखी होगी। मेरे लिए यह नई थी और उपयोगी भी, सोचा आप सबसे साझा करूं।
उपरोक्‍त सारे चित्र ईज़ाइनमार्ट डॉट कॉम से साभार

पुरानी डाक

  • @ द्विवेदी जी, आप जो चाहे वो चित्र अपने ब्‍लॉग पर उपयोग कर सकते हैं। मुझे अच्‍छा लगेगा। चित्र पर मेरे नाम व फ्लिकर एकाउंट या इस चिट्ठे के हाइपर लिंक की अपेक्षा रहेगी।
  • @ यूनूस भाई, कैमरे पर पोस्‍ट जल्‍दी ही लिखूंगा। वैसे भी कैमरे की खरीद पोस्‍ट लायक रही है।
  • @ समीर जी, ममता जी, माला जी, संजीत भाई आप सबको तस्‍वीरें पसंद आई। शुक्रिया। मेरी कोशिश है कि फ्लिकर पर हर 10-15 दिन में कुछ नई तस्‍वीरें डालता रहूँ। देखिएगा।

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008

तस्‍वीरों के बहाने

बचपन से डैडी कों फोटोग्राफी करते देख रहे हैं इसलिए फोटोग्राफी ने छुटपन से ही आकर्षित किया है। आज के इस डिजिटल युग में फोटोग्राफी काफी सस्‍ती हो गई है। हॉं शुरुआती खर्चा ज़रुर है कैमरा लेने का पर उसके बाद तो चाहे जितनी तस्‍वीरें लिजिए, फिल्‍म खत्‍म होने की कोई चिन्‍ता नहीं। साथ ही फिल्‍म धुलवाने और फोटो बनवाने का झंझट भी खत्‍म। जो तस्‍वीर पसंद ना आए हाथों-हाथ डिलीट कर दीजिए।
मुद्दे कि बात यह कि मैंने भी एक कैमरा ले लिया है कुछ दिनों पहले। चूंकि कैमरा लेने के बाद नया-नया शौक है तो घर के कुर्सी मेज सोफा टेबल कप प्‍लेट बाल्‍टी और जो कुछ भी मिल सका सबकी फोटो ले डाली है।
उनमें से कुछ फोटो यहॉं पोस्‍ट कर रहा हूँ। देखें कैसी लगती हैं आपको। टिप्‍पणी किजिएगा।



पहचानिए ज़रा। बिल्‍कुल सही पहचाना। यह वही जॉनसन इअर बड्स हैं।

कोशिश करें इसे पहचानना भी मुश्किल नहीं।




यह सारी और कुछ और तस्‍वीरें आप फ्लिकर पर मेरे पन्‍ने पर देख सकते और चाहे तो वहॉं भी टिपिया सकते हैं। तस्‍वीरों के बारे में तकनीकी जानकारी भी आपको वहीं मिल जाएगी।

सोमवार, फ़रवरी 11, 2008

मेल टुडे में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग पर लेख

इंडिया टुडे पत्रिका के नए अंग्रेज़ी दैनिक मेल टुडे ने हिन्‍दी चिट्ठाकारी पर एक लेख छापा है।

9 फरवरी को पेज 14-15 पर अभिषेक शुक्‍ला द्वारा लिखे इस लेख को आप मेल टुडे की साइट पर भी देख सकते हैं।

सूचनार्थ प्रेषित

रविवार, फ़रवरी 10, 2008

दलित पत्रकार ढूंढो अभियान

पिछले कई दिनों से दलित पत्रकार की तलाश जारी है। पता नहीं मिला या नहीं? अगर मिल गया हो तो बहुत अच्‍छा वर्ना इसके न मिलने कर ठीकरा भी गैर दलितों के सिर पर फोड़ा जाएगा। दलितों के विकास में गैरदलितों की भूमिका को ऐसे पेश किया जाता है जैसे पिछले साठ सालों से गैर दलितों ने उनके विकास के कमरे पर ताला लगा रखा है और चाबी देने को तैयार नहीं हैं।

मजे की बात है कि जो दलित उच्‍च पदों पर पहुँच गए हैं और मलाईदार तबके में गिने जाते हैं उनसे कोई नहीं पूछता कि भई तुमने क्‍या किया दलितों के उत्‍थान के लिए। वो तो आज भी वो सारे लाभ उठाते हैं जो कि उनसे बरसों पहले छीन लिए जाने चाहिए थे।

पता नहीं यह बहस शुरु करने का मकसद क्‍या था ? जिस रिपोर्ट को आधार बनाया गया है क्‍या वो सारे देश के पत्रकारों का प्रतिनिधित्‍व करती है।

मेरे को तो इस तरह की बहसें बिल्‍कुल निरर्थक लगती हैं। शुद्ध बेसिरपैर का ऐसा काम जिसमें हवा में लाठी भांजने के अलावा क्‍या किया जाता है पता नहीं। शायद इसिलिए अक्‍सर ऐसी बहसें बीच मझधार छोड़ दी जाती हैं और फिर नए मुद्दे पकड़ लिए जाते हैं।

इस असमानता को दूर करने के लिए क्‍या, कैसे किया जाए या जो हो रहा है उसका फायदा सही उम्‍मीदवार को कैसे मिले इस पर कोई चर्चा नहीं।

एक पत्रकारिता का क्षेत्र बचा था इस जातिवाद और आरक्षण से तो लीजिए अब उसको भी लाइन में खड़ा करने की तैयारी है।

पत्रकारिता अकेला ऐसा काम है जिसमें कोई डिग्री, कोई फॉर्मल एजुकेशन की जरूरत नहीं। यह एकमात्र ऐसा पेशा है जिसमें अगर आप योग्‍य नहीं तो चाहे कितने डिग्री/डिप्‍लोमा कर लीजिए ज्‍यादा नहीं टिक पाएंगे, अगर आपमें प्रतिभा नहीं तो कुछ नहीं।

दूसरे नज़रिये से देखें तो दो ही काम हैं जिस पर हर भारतवासी का जन्‍मसिद्ध अधिकार है - एक नेतागिरी, दूसरा पत्रकारिता। जो चाहे जब चाहे अपने को पत्रकार/नेता घोषित कर सकता है। गॉवों, छोटे शहरों में दसवी पास बारहवीं फेल पत्रकार खूब मिलते हैं और अक्‍सर ऐसे स्‍वयंभू पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर वो सारे काम कर रहे होते हैं जो पत्रकारिता की आड़ में आसानी से किए जा सकते हैं।

अब क्‍या ऐसे कामों में भी आरक्षण चाहिए, जिनमें कोई न्‍यूनतम योग्‍यता ही नहीं है।

आरक्षण से विरोध नहीं है। पर विरोध है धर्म और जाति को आधार बनाकर दिए जाने वाले आरक्षण से। उस आरक्षण से जहॉं पर क्षमता की लकीर को समता के नाम पर जबरदस्‍ती छोटा किया जाता हो। आरक्षण के नाम पर दाखिले/भर्ती की न्‍यूनतम योग्‍यताऍं कम करना एक गलत फैसला है और इसका विरोध किया ही जाना चाहिए। उस गरीब गैर-दलित को दाखिला क्‍यों नहीं मिलता जो कि सारी न्‍यूनतम योग्‍यताऍं भी पूरी करता है पर उसके पास फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं, और दूसरी तरफ मलाईदार तबके के एक सम्‍पन्‍न व्‍यक्ति को न्‍यूनतम योग्‍याताऍं पूरी न करने के बावजूद दाखिला मिल जाता है, सिर्फ इसलिए क्‍योंकि वो दलित है।

अब पैदा होना तो किसी के वश में नहीं।

शनिवार, जनवरी 12, 2008

सृजन सम्‍मान

पुरस्‍कारों की घोषणा हो गई। अब हल्‍ला करने की बारी है, उनकी जो छपासी हैं। किचकिच-मिचमिच चलती रहेगी। यह होना ही है और आगे भी होता रहेगा। यह तो प्रकृति का नियम है और इस सबका अलग मजा है। खैर...

अनूप जी, ममता जी और अजित जी को मिले इस सम्‍मान के लिए सारे चिट्ठा संसार को बहुत-बहुत बधाई। यह सम्‍मान केवल लोगों का नहीं है जिनका उल्‍लेख सृजनसम्‍मान के निर्णायकों ने किया है बल्कि अभिव्‍यक्ति की इस नई विधा का है, उन कोशिशों का है जिनमें इस विधा को बेहद सार्थक और सकारात्‍मक रूप में स्‍वीकारा गया और तकनीक का सबसे सार्थक उपयोग करते हुए उसे द्विगुणित करके वापिस समाज को लौटा दिया। जो भी चिट्ठाकार इस महत्‍वपूर्ण काम में लगे हैं उन सबको बधाई क्‍योंकि चाहे उनका नाम इस सूची में न हो पर यह उनकी कोशिशों का ही सम्‍मान है।

अजित जी या कहूँ कि दादा के चिट्ठे से मैं शुरुआत से जुड़ा हुआ हूँ। मेरे को याद है कि पिछले साल शायद इन्‍हीं दिनों एक दोपहर दादा का फोन आया था, मैं ऑफिस में था बोले 'यार, ये ब्‍लॉग क्‍या चीज़ है ?' मैंने उन्‍हें कुछ समझाया। पता नहीं कितना क्‍या समझा पाया। अगले दिन फिर फोन आया कि ब्‍लॉग बनाना है। मैंने बताया कि क्‍या करना होगा। फिर ब्‍लॉग बना, देखा तो मेरे भजीजे यानि दादा के बेटे अबीर के बचपन की एक फोटो लगी हुई थी। कई दिन हो गए गाड़ी आगे नहीं बढ़ी। पूछने पर पता लगा कि प्रोजेक्‍ट शब्‍दावली कुछ दिनों के लिए स्‍थगित कर दिया है, तकनीकी कारणों से। फिर जुलाई में एक बार दोबारा फोन आया कि गाड़ी पटरी पर है। ब्‍लॉग शुरु करवाओ। लिख मैं दूंगा, बाकी क्‍या कुछ करना है, उसका रंग-रोगन, साज-सज्‍जा देख लेना। उसके बाद से शब्‍दों का यह सफ़र शुरु हुआ।

शुरुआत में सोचा था कि हफ्ते या ज्‍यादा हुआ तो तीन दिन में एक पोस्‍ट डालेंगे। पर जिस तरह से इस सफर को हाथों-हाथ लिया गया उसकी कल्‍पना भी नहीं थी। इस बेहद उत्‍साहवर्धक रिस्‍पॉन्‍स के चलते सप्‍ताह की एक पोस्‍ट कब पाठकों के लिए रोज़ सवेरे के नाश्‍ते की जरूरी खुराक बन गई पता भी नहीं चला। दादा भी रात-रात भर जागकर हमारे लिए रोज़ नई-नई डिशेज़ बनाते रहे और हम भी इसके माध्‍यम से अपना ज्ञानवर्धन करते रहे।

पता नहीं चला कि कब हम सब इस सफ़र में उनके साथ इतने कम समय में इतनी दूर निकल आए। दादा के ही शब्‍दों में 'अभी कई पड़ाव आने हैं'

सफ़र अब एक आदत बन गया है, एक अच्‍छी आदत। आगे भी वो इस सफ़र की नदी में हमको ऐसे ही गोते लगवाते रहें यही कामना है।

शनिवार, जनवरी 05, 2008

बिल्‍ली के भाग से छींका टूटा

बहुत दिनों बाद आया हूँ। लिखने को कुछ खास है नहीं पर फिर क्‍या, बहुत सारे मित्र ऐसे जिनके पास लिखने को कुछ नहीं होता पर फिर भी लिखते हैं ।

दरअसल ब्‍लॉग ने उन सब लोगों के लिए वरदान है जो 'छपास' रोग से पीडि़त हैं। कुछ भी लिखो, कैसा भी लिखो। बटन दबाओ और छाप दो। कोई संपादन नहीं को काटछांट नहीं यहॉं तक की कई बार तो कोई कारण भी नहीं लिखने का पर लिखना जरूरी है, कोई उसे पढ़े या नहीं।।

मैं चिट्ठों को फीड रीडर से पढ़ता हूँ। सारे एग्रीगेटर्स की फीड अपडेट होती रहती है हर आधे घण्‍टे में। तकरीबन हर 30 मिनट में 30 से 35 नई पोस्‍ट आ जाती हैं। मतलब मिनट में एक। पर कितनी हैं जो आपको कुछ नया बता रही हैं। कोई नया विचार दे रही हैं। शायद दस में एक। और जैसे जैसे चिट्ठाकारों की संख्‍या बढ़ रही है ये अनुपात भी तेजी से बढ़ रहा है। मुठ्ठी भर ऐसे चिट्ठे हैं जिन पर पोस्‍ट का इंतज़ार रहता है।

लोकतंत्र है, और सबको अभिव्‍यक्ति की स्‍‍वतंत्रता है और ब्‍लॉग से बेहतर माध्‍यम और क्‍या हो सकता है। फिर मैं कौन होता हूँ बिना बात पंचायत करने वाला।

लगे रहो मित्रों, अब छींका टूट ही गया है तो मौका मत छोड़ो। डटे रहो।

चिट्ठे जिंदाबाद !

चिट्ठाकारों की जय हो !!