माथे पर चिंता की लकीरें आ गई जब पता चला की फीस केवल डिमाण्ड ड्राफ्ट से ही भरी जाएगी।
डिमाण्ड ड्राफ्ट सुनते ही बैंक याद आया बैंक को याद किया तो सरकार याद आई, अब सरकार याद आई तो सरकार का काम भी याद आना ही था, और बस वो याद आते ही सब भूल गयाा तत्काल ऑफिस फोन करके छुट्टी की अर्जी दीा बताया कि एक ड्रॉफ्ट बनावाना है बैंक से, अर्जी तत्काल मंजूर हो गई, बॉस और साथियों ने best of luck कहाा
हमेशा की तरह फीस भरने की आखिरी तारीख में एक दिन बचा थाा युद्धस्तर पर तैयारियॉं शुरु हुई कि कुछ भी हो जाए एक ही मौका है और यह नही चूकना चाहिए, करो या मरो पर ड्राफ्ट एक ही दिन में बनना चाहिएा
खैर वो दिन भी आया जब हम बैंक पहुंचे, माहौल कुछ बदला हुआ सा थाा सुबह के दस बजे थे और सुखद आश्चर्य कि साहब सीट पर ही मिल गए, हमने कोई मौका न चूकते हुए तुरंत साहब को अपनी मंशा बताईा साहब ने कहा अंदर आकर बैठकर समस्या बताएं ा मैंने तो पीछे मुड् के देखा कि साहब मुझसे ही मुखातिब हैं या किसी और से, डरते डरते अंदर पहुंचे तो कहा कुर्सी पर बैठिये, अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआा आखिर था तो यह भी सरकारी दफ्तर हीा अब हम भी कहॉं कुर्सी छोडने वाले थे तत्काल जम गए बताया कि एक छोटा से ड्राफ्ट बनवाना हैा जनाब आप विश्वास नहीं करेंगे बडे बाबू ने अपने हाथ से फॉर्म भरा और हमें देते हुए कहा कि इसे जमा कर देंा हमें तो लगने लगा था की हम जन्नत में हैं क्योंकि भारत के सरकारी बैंको में तो ऐसा व्यवहार केवल सपने में ही सोचा जा सकता हैा
भैया हद तो तब हो गई जब हमने बडे बाबू से पूछा की सर कब आऊं ड्राफ्ट लेने और उन्होंने मेरे हाथों में मेरा ड्राफ्ट रख दियाा मुझे बैंक में आए केवल 22 मिनट हुए थेा 22 मिनट में सरकार ने मेरा काम कर दिया था, विश्वास नहीं हो रहा थाा मैं तो कभी साहब को देख रहा था कभी उस कागज के पुर्जे को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, मैं कहॉं हूँ, मैंने चारों दिशाओं में देखा कि क्या यह वहीं जगह है जहॉं अपने पैसे निकलवाने के लिए भी घण्टों लाइन में लगे रहना पडता थाा पिछली बार शायद 10-12 महिने पहले जब इसी काम के लिए इसी दफ्तर में आया था तो पूरे 24 घण्टे लग गए थेा बाबू लोग जितनी मर्जी हो उतनी देर कुर्सी पर बैठते थे जब इच्छा हो उठकर चले जाते थे और जनता कि किस्मत में होता था केवल इंतजार ा
साहब को शायद मेरी शक्ल देखकर परेशानी समझा में आ गई, बोले असली ड्राफ्ट है, ऑफिस भी सरकारी है हम भी वही वाले हैंा मैंने पूछा तो फिर हुआ क्या, जवाब मिला कि यार इन प्राइवेट बैंक वालों ने जान आफत में कर दी है, चैन से जीने नहीं देतेा
मुझे पहली बार महसूस हुआ कि कुछ तो है जो असाध्य समझे जाने वाले सरकारी बाबूओं को ठीक कर सकता हैा प्राइवेटाइजेशन का जनता को और कोई लाभ मिले ना मिले पर अब फर्क महसूस होने लगा हैा
जय हो बाबा मनमोहन की.......
शुक्रवार, जुलाई 14, 2006
सरकारी बैंक, ड्राफ्ट और 22 मिनट
:: Unknown :: 12:52 pm
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