निठल्ला बैठा था, गलत मत समझिये मैं सशरीर ऑफिस में था। अब ऑफिस में ही तो व्यक्ति चिंतन करता है, निठल्ल चिंतन।
तो सोच रहा था कि क्या करूं, आठ घंटे कैसे कटें, ध्यान आया कि इस कम्प्यूटर नाम के जीव ने कहते हैं कि सारी दुनिया को एक डिब्बे में समेट लिया है। मैने सोचा चलो इस डिब्बे में बंद दुनिया में से ज़रा अपने परिजनों को ढूंढे।
यक्ष प्रश्न यह था कि सवा बाई डेड़ फुट के इस डिब्बे में समाई इस दुनिया में से अपने परिजनों को कैसे एक जगह एकसाथ एकत्र करूं। काफी ढूंढा-ढांढी के बाद इस जीव ने ही एक ऐसी सुविधा के बारे में बताया जिससे जुड़कर मैं दुनिया के कोने-कोने में बैठे अपने परिचितों को एक साथ एक मंच पर आने के लिए न्यौता दे सकता था। सुविधा थी समुह बनाने की याने ग्रुप्स बनाने की। शुरुआत की एक परिवारिक समूह बनाकर। न्यौता भेज दिया उन सबको जो ईमेल के माध्यम से इस संचार तंत्र से जुड़े थे।
श्रीगणेश करने के दो दिन के अंदर वो सारे लोग जिनसे संपर्क हुए महीनों बीत जाते थे अब एक साथ एक जगह इकठ्ठे थे। किसी भी ब्लॉकबस्टर से ज्यादा हिट हो गया ये समूह। सब एक-दूसरे से बतिया रहे थे और वह भी दिन भर में कई-कई बार। वास्तव में अद्भुत चीज़ है ये ज़रा सा डिब्बा।
मेरी देखा-देखी और मेरे ग्रुप की आश्चर्य जनक सफलता को देखकर ऑफिस के दो-चार मित्रों ने भी अब इसी तरह का निठल्ल चिंतन आरंभ कर दिया है। दिनभर का काम निपटाया या फिर काम के बीच में थोड़ा समय निकाला और जुड़ गए अपने मित्र-मण्डली या परिवार के साथ। आजकल हमारे ऑफिस में काम कम और चिंतन ज्यादा हो रहा है।
सच में सवा बाई डेड़ फुट के इस डिब्बे ने कमसे कम मेरी दुनिया को तो एकजगह ला दिया है ।
शुक्रवार, सितंबर 29, 2006
कम्प्यूटर की माया
:: Unknown :: 9:17 am 0 टिप्पणियॉं
शुक्रवार, जुलाई 14, 2006
सरकारी बैंक, ड्राफ्ट और 22 मिनट
माथे पर चिंता की लकीरें आ गई जब पता चला की फीस केवल डिमाण्ड ड्राफ्ट से ही भरी जाएगी।
डिमाण्ड ड्राफ्ट सुनते ही बैंक याद आया बैंक को याद किया तो सरकार याद आई, अब सरकार याद आई तो सरकार का काम भी याद आना ही था, और बस वो याद आते ही सब भूल गयाा तत्काल ऑफिस फोन करके छुट्टी की अर्जी दीा बताया कि एक ड्रॉफ्ट बनावाना है बैंक से, अर्जी तत्काल मंजूर हो गई, बॉस और साथियों ने best of luck कहाा
हमेशा की तरह फीस भरने की आखिरी तारीख में एक दिन बचा थाा युद्धस्तर पर तैयारियॉं शुरु हुई कि कुछ भी हो जाए एक ही मौका है और यह नही चूकना चाहिए, करो या मरो पर ड्राफ्ट एक ही दिन में बनना चाहिएा
खैर वो दिन भी आया जब हम बैंक पहुंचे, माहौल कुछ बदला हुआ सा थाा सुबह के दस बजे थे और सुखद आश्चर्य कि साहब सीट पर ही मिल गए, हमने कोई मौका न चूकते हुए तुरंत साहब को अपनी मंशा बताईा साहब ने कहा अंदर आकर बैठकर समस्या बताएं ा मैंने तो पीछे मुड् के देखा कि साहब मुझसे ही मुखातिब हैं या किसी और से, डरते डरते अंदर पहुंचे तो कहा कुर्सी पर बैठिये, अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआा आखिर था तो यह भी सरकारी दफ्तर हीा अब हम भी कहॉं कुर्सी छोडने वाले थे तत्काल जम गए बताया कि एक छोटा से ड्राफ्ट बनवाना हैा जनाब आप विश्वास नहीं करेंगे बडे बाबू ने अपने हाथ से फॉर्म भरा और हमें देते हुए कहा कि इसे जमा कर देंा हमें तो लगने लगा था की हम जन्नत में हैं क्योंकि भारत के सरकारी बैंको में तो ऐसा व्यवहार केवल सपने में ही सोचा जा सकता हैा
भैया हद तो तब हो गई जब हमने बडे बाबू से पूछा की सर कब आऊं ड्राफ्ट लेने और उन्होंने मेरे हाथों में मेरा ड्राफ्ट रख दियाा मुझे बैंक में आए केवल 22 मिनट हुए थेा 22 मिनट में सरकार ने मेरा काम कर दिया था, विश्वास नहीं हो रहा थाा मैं तो कभी साहब को देख रहा था कभी उस कागज के पुर्जे को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, मैं कहॉं हूँ, मैंने चारों दिशाओं में देखा कि क्या यह वहीं जगह है जहॉं अपने पैसे निकलवाने के लिए भी घण्टों लाइन में लगे रहना पडता थाा पिछली बार शायद 10-12 महिने पहले जब इसी काम के लिए इसी दफ्तर में आया था तो पूरे 24 घण्टे लग गए थेा बाबू लोग जितनी मर्जी हो उतनी देर कुर्सी पर बैठते थे जब इच्छा हो उठकर चले जाते थे और जनता कि किस्मत में होता था केवल इंतजार ा
साहब को शायद मेरी शक्ल देखकर परेशानी समझा में आ गई, बोले असली ड्राफ्ट है, ऑफिस भी सरकारी है हम भी वही वाले हैंा मैंने पूछा तो फिर हुआ क्या, जवाब मिला कि यार इन प्राइवेट बैंक वालों ने जान आफत में कर दी है, चैन से जीने नहीं देतेा
मुझे पहली बार महसूस हुआ कि कुछ तो है जो असाध्य समझे जाने वाले सरकारी बाबूओं को ठीक कर सकता हैा प्राइवेटाइजेशन का जनता को और कोई लाभ मिले ना मिले पर अब फर्क महसूस होने लगा हैा
जय हो बाबा मनमोहन की.......
:: Unknown :: 12:52 pm 0 टिप्पणियॉं
मंगलवार, जुलाई 11, 2006
आखिरकार कम्प्यूटर फॉर्मेट करना पडा, तो जाकर हिन्दी टाइप चालू हो पाया ा अभी भी कुछ समस्याऐं हैं कौनसा कीबोर्ड लेआउट सबसे उपयुक्त है, रेमिंगटन में पूर्णविराम कहॉं है बहुत सारी ऐसी छोटी छोटी दिक्क्तें हैं जो धीरे धीरे दूर हो जाएंगी पर सबसे अच्छी बात है कि हिन्दी शुरु तो हुईा
:: Unknown :: 11:51 pm 0 टिप्पणियॉं
शनिवार, जुलाई 01, 2006
आखिरकार मैं हिन्दी मे ब्लॉग लिखने में सफल हो ही गया, सफलता अभी आंशिक है, यह ब्लॉग में ऑफिस के कम्प्यूटर से लिख रहा हूँा घर पर अभी तक इंडीक आईएमई ठीक ढंग से इंस्टॉल नहीं हुआ है , उसमें अभी भी हिन्दी टाइपराइटर लेआउट नहीं चालू हो पाए हैं, टाइप करते हुए सिर्फ चौखाने बने हुए आते हैं
जैसा कि दिख रहा है अभी पूर्णविराम की तलाश जारी है,
कोशिश कर रहे हैं कि अब नौकरी बदली जाए, बहुत दिन हो गए करीब पौने दो साल
घर पर यह हिन्दी टाइपिंग चालू हो जाए तो कुछ लिखने में भी मजा आए
कोशिश जारी है.....
:: Unknown :: 9:49 pm 4 टिप्पणियॉं