शनिवार, जनवरी 12, 2008

सृजन सम्‍मान

पुरस्‍कारों की घोषणा हो गई। अब हल्‍ला करने की बारी है, उनकी जो छपासी हैं। किचकिच-मिचमिच चलती रहेगी। यह होना ही है और आगे भी होता रहेगा। यह तो प्रकृति का नियम है और इस सबका अलग मजा है। खैर...

अनूप जी, ममता जी और अजित जी को मिले इस सम्‍मान के लिए सारे चिट्ठा संसार को बहुत-बहुत बधाई। यह सम्‍मान केवल लोगों का नहीं है जिनका उल्‍लेख सृजनसम्‍मान के निर्णायकों ने किया है बल्कि अभिव्‍यक्ति की इस नई विधा का है, उन कोशिशों का है जिनमें इस विधा को बेहद सार्थक और सकारात्‍मक रूप में स्‍वीकारा गया और तकनीक का सबसे सार्थक उपयोग करते हुए उसे द्विगुणित करके वापिस समाज को लौटा दिया। जो भी चिट्ठाकार इस महत्‍वपूर्ण काम में लगे हैं उन सबको बधाई क्‍योंकि चाहे उनका नाम इस सूची में न हो पर यह उनकी कोशिशों का ही सम्‍मान है।

अजित जी या कहूँ कि दादा के चिट्ठे से मैं शुरुआत से जुड़ा हुआ हूँ। मेरे को याद है कि पिछले साल शायद इन्‍हीं दिनों एक दोपहर दादा का फोन आया था, मैं ऑफिस में था बोले 'यार, ये ब्‍लॉग क्‍या चीज़ है ?' मैंने उन्‍हें कुछ समझाया। पता नहीं कितना क्‍या समझा पाया। अगले दिन फिर फोन आया कि ब्‍लॉग बनाना है। मैंने बताया कि क्‍या करना होगा। फिर ब्‍लॉग बना, देखा तो मेरे भजीजे यानि दादा के बेटे अबीर के बचपन की एक फोटो लगी हुई थी। कई दिन हो गए गाड़ी आगे नहीं बढ़ी। पूछने पर पता लगा कि प्रोजेक्‍ट शब्‍दावली कुछ दिनों के लिए स्‍थगित कर दिया है, तकनीकी कारणों से। फिर जुलाई में एक बार दोबारा फोन आया कि गाड़ी पटरी पर है। ब्‍लॉग शुरु करवाओ। लिख मैं दूंगा, बाकी क्‍या कुछ करना है, उसका रंग-रोगन, साज-सज्‍जा देख लेना। उसके बाद से शब्‍दों का यह सफ़र शुरु हुआ।

शुरुआत में सोचा था कि हफ्ते या ज्‍यादा हुआ तो तीन दिन में एक पोस्‍ट डालेंगे। पर जिस तरह से इस सफर को हाथों-हाथ लिया गया उसकी कल्‍पना भी नहीं थी। इस बेहद उत्‍साहवर्धक रिस्‍पॉन्‍स के चलते सप्‍ताह की एक पोस्‍ट कब पाठकों के लिए रोज़ सवेरे के नाश्‍ते की जरूरी खुराक बन गई पता भी नहीं चला। दादा भी रात-रात भर जागकर हमारे लिए रोज़ नई-नई डिशेज़ बनाते रहे और हम भी इसके माध्‍यम से अपना ज्ञानवर्धन करते रहे।

पता नहीं चला कि कब हम सब इस सफ़र में उनके साथ इतने कम समय में इतनी दूर निकल आए। दादा के ही शब्‍दों में 'अभी कई पड़ाव आने हैं'

सफ़र अब एक आदत बन गया है, एक अच्‍छी आदत। आगे भी वो इस सफ़र की नदी में हमको ऐसे ही गोते लगवाते रहें यही कामना है।

शनिवार, जनवरी 05, 2008

बिल्‍ली के भाग से छींका टूटा

बहुत दिनों बाद आया हूँ। लिखने को कुछ खास है नहीं पर फिर क्‍या, बहुत सारे मित्र ऐसे जिनके पास लिखने को कुछ नहीं होता पर फिर भी लिखते हैं ।

दरअसल ब्‍लॉग ने उन सब लोगों के लिए वरदान है जो 'छपास' रोग से पीडि़त हैं। कुछ भी लिखो, कैसा भी लिखो। बटन दबाओ और छाप दो। कोई संपादन नहीं को काटछांट नहीं यहॉं तक की कई बार तो कोई कारण भी नहीं लिखने का पर लिखना जरूरी है, कोई उसे पढ़े या नहीं।।

मैं चिट्ठों को फीड रीडर से पढ़ता हूँ। सारे एग्रीगेटर्स की फीड अपडेट होती रहती है हर आधे घण्‍टे में। तकरीबन हर 30 मिनट में 30 से 35 नई पोस्‍ट आ जाती हैं। मतलब मिनट में एक। पर कितनी हैं जो आपको कुछ नया बता रही हैं। कोई नया विचार दे रही हैं। शायद दस में एक। और जैसे जैसे चिट्ठाकारों की संख्‍या बढ़ रही है ये अनुपात भी तेजी से बढ़ रहा है। मुठ्ठी भर ऐसे चिट्ठे हैं जिन पर पोस्‍ट का इंतज़ार रहता है।

लोकतंत्र है, और सबको अभिव्‍यक्ति की स्‍‍वतंत्रता है और ब्‍लॉग से बेहतर माध्‍यम और क्‍या हो सकता है। फिर मैं कौन होता हूँ बिना बात पंचायत करने वाला।

लगे रहो मित्रों, अब छींका टूट ही गया है तो मौका मत छोड़ो। डटे रहो।

चिट्ठे जिंदाबाद !

चिट्ठाकारों की जय हो !!