शुक्रवार, सितंबर 29, 2006

कम्‍प्‍यूट‍र की माया

निठल्‍ला बैठा था, गलत मत समझिये मैं सशरीर ऑफिस में था। अब ऑफिस में ही तो व्‍यक्ति चिंतन करता है, निठल्‍ल चिंतन।

तो सोच रहा था कि क्‍या करूं, आठ घंटे कैसे कटें, ध्‍यान आया कि इस कम्‍प्‍यूटर नाम के जीव ने कहते हैं कि सारी दुनिया को एक डिब्‍बे में समेट लिया है। मैने सोचा चलो इस डिब्‍बे में बंद दुनिया में से ज़रा अपने परिजनों को ढूंढे।

यक्ष प्रश्‍न यह था कि सवा बाई डेड़ फुट के इस डिब्‍बे में समाई इस दुनिया में से अपने परिजनों को कैसे एक जगह एकसाथ एकत्र करूं। काफी ढूंढा-ढांढी के बाद इस जीव ने ही एक ऐसी सुविधा के बारे में बताया जिससे जुड़कर मैं दुनिया के कोने-कोने में बैठे अपने परिचितों को एक साथ एक मंच पर आने के लिए न्‍यौता दे सकता था। सुविधा थी समुह बनाने की याने ग्रुप्‍स बनाने की। शुरुआत की एक परिवारिक समूह बनाकर। न्‍यौता भेज दिया उन सबको जो ईमेल के माध्‍यम से इस संचार तंत्र से जुड़े थे।

श्रीगणेश करने के दो दिन के अंदर वो सारे लोग जिनसे संपर्क हुए महीनों बीत जाते थे अब एक साथ एक जगह इकठ्ठे थे। किसी भी ब्‍लॉकबस्‍टर से ज्‍यादा हिट हो गया ये समूह। सब एक-दूसरे से बतिया रहे थे और वह भी दिन भर में कई-कई बार। वास्‍तव में अद्भुत चीज़ है ये ज़रा सा डिब्‍बा।

मेरी देखा-देखी और मेरे ग्रुप की आश्‍चर्य जनक सफलता को देखकर ऑफिस के दो-चार मित्रों ने भी अब इसी तरह का निठल्‍ल चिंतन आरंभ कर दिया है। दिनभर का काम निपटाया या फिर काम के बीच में थोड़ा समय निकाला और जुड़ गए अपने मित्र-मण्‍डली या परिवार के साथ। आजकल हमारे ऑफिस में काम कम और चिंतन ज्‍यादा हो रहा है।

सच में सवा बाई डेड़ फुट के इस डिब्‍बे ने कमसे कम मेरी दुनिया को तो एकजगह ला दिया है ।