गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008

तस्‍वीरों के बहाने

बचपन से डैडी कों फोटोग्राफी करते देख रहे हैं इसलिए फोटोग्राफी ने छुटपन से ही आकर्षित किया है। आज के इस डिजिटल युग में फोटोग्राफी काफी सस्‍ती हो गई है। हॉं शुरुआती खर्चा ज़रुर है कैमरा लेने का पर उसके बाद तो चाहे जितनी तस्‍वीरें लिजिए, फिल्‍म खत्‍म होने की कोई चिन्‍ता नहीं। साथ ही फिल्‍म धुलवाने और फोटो बनवाने का झंझट भी खत्‍म। जो तस्‍वीर पसंद ना आए हाथों-हाथ डिलीट कर दीजिए।
मुद्दे कि बात यह कि मैंने भी एक कैमरा ले लिया है कुछ दिनों पहले। चूंकि कैमरा लेने के बाद नया-नया शौक है तो घर के कुर्सी मेज सोफा टेबल कप प्‍लेट बाल्‍टी और जो कुछ भी मिल सका सबकी फोटो ले डाली है।
उनमें से कुछ फोटो यहॉं पोस्‍ट कर रहा हूँ। देखें कैसी लगती हैं आपको। टिप्‍पणी किजिएगा।



पहचानिए ज़रा। बिल्‍कुल सही पहचाना। यह वही जॉनसन इअर बड्स हैं।

कोशिश करें इसे पहचानना भी मुश्किल नहीं।




यह सारी और कुछ और तस्‍वीरें आप फ्लिकर पर मेरे पन्‍ने पर देख सकते और चाहे तो वहॉं भी टिपिया सकते हैं। तस्‍वीरों के बारे में तकनीकी जानकारी भी आपको वहीं मिल जाएगी।

सोमवार, फ़रवरी 11, 2008

मेल टुडे में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग पर लेख

इंडिया टुडे पत्रिका के नए अंग्रेज़ी दैनिक मेल टुडे ने हिन्‍दी चिट्ठाकारी पर एक लेख छापा है।

9 फरवरी को पेज 14-15 पर अभिषेक शुक्‍ला द्वारा लिखे इस लेख को आप मेल टुडे की साइट पर भी देख सकते हैं।

सूचनार्थ प्रेषित

रविवार, फ़रवरी 10, 2008

दलित पत्रकार ढूंढो अभियान

पिछले कई दिनों से दलित पत्रकार की तलाश जारी है। पता नहीं मिला या नहीं? अगर मिल गया हो तो बहुत अच्‍छा वर्ना इसके न मिलने कर ठीकरा भी गैर दलितों के सिर पर फोड़ा जाएगा। दलितों के विकास में गैरदलितों की भूमिका को ऐसे पेश किया जाता है जैसे पिछले साठ सालों से गैर दलितों ने उनके विकास के कमरे पर ताला लगा रखा है और चाबी देने को तैयार नहीं हैं।

मजे की बात है कि जो दलित उच्‍च पदों पर पहुँच गए हैं और मलाईदार तबके में गिने जाते हैं उनसे कोई नहीं पूछता कि भई तुमने क्‍या किया दलितों के उत्‍थान के लिए। वो तो आज भी वो सारे लाभ उठाते हैं जो कि उनसे बरसों पहले छीन लिए जाने चाहिए थे।

पता नहीं यह बहस शुरु करने का मकसद क्‍या था ? जिस रिपोर्ट को आधार बनाया गया है क्‍या वो सारे देश के पत्रकारों का प्रतिनिधित्‍व करती है।

मेरे को तो इस तरह की बहसें बिल्‍कुल निरर्थक लगती हैं। शुद्ध बेसिरपैर का ऐसा काम जिसमें हवा में लाठी भांजने के अलावा क्‍या किया जाता है पता नहीं। शायद इसिलिए अक्‍सर ऐसी बहसें बीच मझधार छोड़ दी जाती हैं और फिर नए मुद्दे पकड़ लिए जाते हैं।

इस असमानता को दूर करने के लिए क्‍या, कैसे किया जाए या जो हो रहा है उसका फायदा सही उम्‍मीदवार को कैसे मिले इस पर कोई चर्चा नहीं।

एक पत्रकारिता का क्षेत्र बचा था इस जातिवाद और आरक्षण से तो लीजिए अब उसको भी लाइन में खड़ा करने की तैयारी है।

पत्रकारिता अकेला ऐसा काम है जिसमें कोई डिग्री, कोई फॉर्मल एजुकेशन की जरूरत नहीं। यह एकमात्र ऐसा पेशा है जिसमें अगर आप योग्‍य नहीं तो चाहे कितने डिग्री/डिप्‍लोमा कर लीजिए ज्‍यादा नहीं टिक पाएंगे, अगर आपमें प्रतिभा नहीं तो कुछ नहीं।

दूसरे नज़रिये से देखें तो दो ही काम हैं जिस पर हर भारतवासी का जन्‍मसिद्ध अधिकार है - एक नेतागिरी, दूसरा पत्रकारिता। जो चाहे जब चाहे अपने को पत्रकार/नेता घोषित कर सकता है। गॉवों, छोटे शहरों में दसवी पास बारहवीं फेल पत्रकार खूब मिलते हैं और अक्‍सर ऐसे स्‍वयंभू पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर वो सारे काम कर रहे होते हैं जो पत्रकारिता की आड़ में आसानी से किए जा सकते हैं।

अब क्‍या ऐसे कामों में भी आरक्षण चाहिए, जिनमें कोई न्‍यूनतम योग्‍यता ही नहीं है।

आरक्षण से विरोध नहीं है। पर विरोध है धर्म और जाति को आधार बनाकर दिए जाने वाले आरक्षण से। उस आरक्षण से जहॉं पर क्षमता की लकीर को समता के नाम पर जबरदस्‍ती छोटा किया जाता हो। आरक्षण के नाम पर दाखिले/भर्ती की न्‍यूनतम योग्‍यताऍं कम करना एक गलत फैसला है और इसका विरोध किया ही जाना चाहिए। उस गरीब गैर-दलित को दाखिला क्‍यों नहीं मिलता जो कि सारी न्‍यूनतम योग्‍यताऍं भी पूरी करता है पर उसके पास फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं, और दूसरी तरफ मलाईदार तबके के एक सम्‍पन्‍न व्‍यक्ति को न्‍यूनतम योग्‍याताऍं पूरी न करने के बावजूद दाखिला मिल जाता है, सिर्फ इसलिए क्‍योंकि वो दलित है।

अब पैदा होना तो किसी के वश में नहीं।